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Monday, August 24, 2009

एक सुकून की ज़िन्दगी को तरसती नारी ....



एक सुकून की ज़िन्दगी को तरसती नारी ..
जिसकी अपनी ही व्यथा है न्यारी ...
रोज़ मरती है और रोज़ जीती है ...

कभी तो इस पुरुष प्रधान समाज में ...
अपने ही वजूद को साबित करने की..
जदोजहद में ...

कभी तो घर की चौखट के अन्दर ...
अपने ही अस्तित्व को समेटने की ...
कशमकश में

व्यथा और भी गंभीर होती है ...
जब नारी ही नारी को परखती है ...
अपनी ही अलग अलग कसौटी पर ...

जाने कब ये सिलसिला ख़त्म होगा...
रोज़ मरने का और रोज़ जीने का ....

एक सुकून की ज़िन्दगी को तरसती नारी ...
श्रुति मेहेंदले 

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