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Friday, November 6, 2009

शायद इसीको कहते है ज़िन्दगी ..


गुज़री है ये ज़िन्दगी तुम्हारी  कुछ ...
तनहा और खामोश सी ...
गुस्ताखी  माफ़ हो मेरी जो मैंने ...
इस खामोश और तनहा ज़िन्दगी में दस्तक दी ..
पर इसमें कुछ खुदा कि मर्ज़ी भी है शामिल ...
वर्ना तुम और हम यू ना मिलते ...
न जाने क्यों तुमसे मिल के भी ...
ज़िन्दगी में तुम हो कुछ जुदा-जुदा से ..
फिर भी आलम ये है कि....
तुम्हारे रंग में हम भी है रंग गये....
कहने को तो बहुत कुछ है पर कहे तो क्या कहे... 
तुमको खामोशी है पसंद तो फिर ...
हम भी तुम्हारी खामोशी में है कुछ खामोश से ...
कितना भी चाहे तुमसे मिलना ...
पर ये ज़िन्दगी कि राहे है कुछ जुदा-जुदा सी ....
फिर तुम से यू जुदा हम भी है कुछ तनहा तनहा ...
वक़्त ने ये कैसा खेल है खेला ...
पा के भी तुमको है ज़िन्दगी में कुछ दूरिया  ..
अब तो खुदा से सिर्फ ये है कहना ...
जब जुदा ही थी राहे तो क्यों था मिलाया ...
जाने क्यों अब तो खुदा के...
इस खेल कि आदत सी हो गयी है ...
और फिर सोचती हु शायद ...
वक़्त भी कभी तो करवट बदलेगा ....
शायद इन खामोश राहो पे तनहा चलते-चलते ...
फिर किसी अनजाने मोड़ पे तुमसे मुलाकात हो ...
इसी उम्मीद पे ज़िन्दगी को...
 खुशगवार है मने किया....
शायद इसीको कहते है ज़िन्दगी ... 



श्रुति मेहेंदले 5th नवम्बर  2009






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