तुमने ये कैसे कह दिया की...
क्या तुम सच में मेरी जान हो ...
ये सवाल शायद तुम अपनाप से पूछते ...
तो भी जवाब मिल जाता ...
ये बात अलग है कि तुम ...
इस बात को मानना नहीं चाहते ...
तुम अपनेआप से ही भाग रहें हो ...
तो मेरे वजूद पे तो सवाल आ ही जाता है ...
तुमने न जाने क्यों ...
अपनी सोच को इस तहर ढाल लिया है कि ..
जो सच है उसको भी ....
पहचाने से कतराते नहीं ...
माना कि ज़िन्दगी कुछ इम्तिहान ले रही है ...
इसका मतलब ये नहीं ....
जो अपने है उनको भी ....
ज़िन्दगी मैं तुम पराया कर दो ...
ज़िन्दगी मैं ...
मुश्किल से अपने मिलते है ....
कोशिश कर उनको तो संजो के रखो ..
ये न हो जब वक़्त आये ....
अपनेआप से सामना करने का ...
तो आख़ न मिला सको ...
अपनेआप से ...
श्रुति मेहेंदले 19th में 2010
2 comments:
bahut khub....
yeh bhi khub rahi...
utkrisht rachna...
yun hi likhte rahein...
meri kavitaon ko bhi aapki pratikriya ka intzaar hai........
सादगी से कही गयी दिल की बात हमेशा दिल तक असर करती है...जो कर रही है. बहुत अच्छी रचना.
मेरे ब्लॉग पर आपने के लिए आभारी हू.
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